Zenab rehan

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तीसरा अध्याय





इस यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को संतुष्ट करो, पुष्ट और समुन्नत करो और वे देवता तुम्हें भी वैसा ही करें। (इस तरह) परस्पर एक दूसरे को सुखी-संपन्न बनाते हुए परम कल्याण - मोक्ष - प्राप्त करो। 11।

इष्टान् भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।

तैर्द त्ता नप्रदायैभ्यो यै भुंक्ते स्तेन एव स:॥12॥

क्योंकि यज्ञों के द्वारा तृप्त और प्रसन्न किए गए देवता तुम्हें सभी अभिलषित पदार्थ देंगे। इसीलिए उन्हीं के दिए इन पदार्थों को उन्हें भेंट न करके जो (स्वयमेव) हड़प लेता है वह अवश्यमेव चोर है। 12।

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सकिल्बिषे:।

भुं जते ते त्चघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥13॥

यज्ञ के बाद बचे-बचाए पदार्थों को भोगने वाले सत्पुरुष सभी पापों और बुराइयों से छुटकारा पा जाते हैं। (लेकिन) वे पापी लोग तो पाप को ही भोगते हैं जो केवल अपने ही लिए (पदार्थ) पकाते हैं - तैयार करते हैं। 13।

इस श्लोक के 'यज्ञशिष्टाशिन:' में अश् धातु भोजनार्थक है। मगर जिस भुज् धातु से भोजन शब्द बनता है उसी से भोग भी बनता है। इसीलिए भोजन या अशन का अर्थ केवल पेट में डालना ही नहीं है। मार खाने, धोखा खाने में भी तो खाना आता है। मगर ये तो पेट में रखने की चीजें हैं नहीं। उसी प्रकार यहाँ भी समझना होगा। यज्ञ के बाद जो शेष रहे उसी पदार्थ को खाना-पहनना या अपने निजी काम में लाना यही 'यज्ञशिष्टाशन' का अर्थ है। उसी तरह 'पचंति' में पच् धातु का अर्थ पकाना है और भात-रोटी आदि के पकाने को ही आमतौर से पकाना कहते हैं। मगर फसल पक गई, घड़ा पक गया, आम पक गया, फोड़ा पक गया में तो तैयार होना ही अर्थ है। महाराष्ट्र में फसल को ही पाक कहते है। यहाँ भी तैयार करना ही अर्थ उचित है। सभी प्रकार के पदार्थों को तैयार करके पहले उन्हें यज्ञार्थ अर्पण करना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि उनके कुछ अंश यथाशक्ति समाजहित या परोपकार के कामों में लगा के शेष को ही निजी काम में लाना उचित है। अन्न पका के भगवान या देव-पितरों को अर्पण करना भी इसी में आ जाता है।

ऐसा करने के बाद जो पदार्थों को भोगता है वही महापुरुष यज्ञशिष्टाशी है। विपरीत इसके जो सब कुछ निजी कामों में ही खर्च करता है वही पापी है। उसके पदार्थ को दरअसल पाप ही कहा है, यद्यपि देखने में वह स्थूल पदार्थ प्रतीत होता है। असल में ऐसे स्वार्थी बनने पर समाज एक मिनट भी टिक सकता नहीं। जब हरेक को अपनी-अपनी ही सूझी तो समाज रहेगा कैसे? वह तो उसी क्षण खत्म हो गया। ऐसे स्वार्थी होने पर कोई भी कायम नहीं रह सकता। जब तक एक दूसरे की फिक्र और परवाह कम-बेश न करें सभी मर-मिटेंगे। किसी का भी काम चल सकेगा ही नहीं। इसीलिए ऐसे काम को पाप और बुराई कहा है। मनु ने यज्ञशिष्ट पदार्थ को अमृत कहा है। उनका यज्ञ उतना व्यापक नहीं था। केवल देवपितरों के लिए जो कर्म होते थे उन्हीं को उनने यज्ञ माना था। इसीलिए यज्ञ के सिवाय दूसरे परोपकारी कामों में जो चीज लगे उसके शेष को उनने विघस नाम दिया था। 'यज्ञशिष्टामृतभुज:' (4। 31) में गीता ने भी यज्ञशिष्ट को अमृत ही कहा है। जो बात गीता के 13वें श्लोक में लिखी है वही मनुस्मृति में भी यों लिखी है कि 'अघं स केवलं भुंक्ते य: पचत्यात्मकारणात्। यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते' (3। 118)। इस श्लोक में गीता के ही अधिकांश को अक्षरश: दे दिया है। पूर्वार्द्ध तो प्राय: जैसे का तैसा ही गीता के श्लोक का उत्तरार्द्ध है। पूर्वार्द्ध में भी गीता के उत्तरार्द्ध का आधा प्राय: ज्यों का त्यों और उसके 'संत:' की जगह पर ही 'सतां' दे दिया है। पुराने समय में इस यज्ञ का इतना ज्यादा महत्त्व था कि ऋग्वेद में भी गीता के 'भुंजतेतेत्वघं पापा:' की ही तरह लिख दिया है कि 'नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी' (10। 117। 6) । मंत्र के देखने से यह भी पता चलता है कि ऋग्वेद के समय यज्ञ का व्यापक अर्थ गीता की ही तरह माना जाता है। इसीलिए अर्यमा और सखा की पुष्टि की बात इसमें आई है। अर्यमा मेघ सरीखे देवता को और सखा बंधुबांधव को कहते है।

आगे जिस यज्ञचक्र का वर्णन है उसका संक्षिप्त रूप प्राय: इसी तरह का मनुस्मृति में यों पाया जाता है, 'अग्नौप्रास्ताहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा' (3। 76)। महाभारत के शांतिपर्व (340। 38। 62) में भी इस यज्ञ की बात विस्तृत रूप से आई है। मगर गीता के यज्ञ चक्र की खूबी कहीं है नहीं। हमने इसका पूर्ण विवरण पहले ही लिखा है।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥14॥

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥15॥

अन्न से प्राणी और सत्ताधारी पदार्थ बनते हैं - उत्पन्न होते हैं। वृष्टि से अन्न पैदा होता है। यज्ञ से वृष्टि होती है। कर्मों से यज्ञ बनता है - यज्ञ का स्वरूप तैयार होता है। कर्म वेद (जैसे ज्ञानभंडार) से ही मालूम होते हैं - जाने जाते हैं और वेद जैसा ज्ञानभंडार अविनाशी (समष्टि महाभूत परमात्मा) से पैदा होता है। इसीलिए सभी बातों को अवगत कराने - जनाने - वाले वेदरूपी ज्ञान भंडार का तात्पर्य यज्ञ करने में ही है। यज्ञ ही उसका आधार भी है। 14। 15।

एवं प्रवर्तितं चक्रं ना नु व र्त्त यतीह य:।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥16॥

(इसलिए) हे पार्थ, इस प्रकार जारी किए गए (यज्ञ) चक्र को इस दुनिया में जो (आदमी) कायम नहीं रखता (उसका) जीवन पापमय है, वह केवल इंद्रियों को ही तृप्त करने वाला है। (इसीलिए) उसका जीना बेकार है। 16।

यहाँ यज्ञचक्र के सिलसिले में इतनी सख्ती के साथ इसके चालू रखने की बात कही गई है कि संदेह होने लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि गीता के मत से कर्मों का त्याग कभी हो ही नहीं सकता। जब कर्म ही संसार की स्थिति, वृद्धि और प्रगति के लिए कामधेनु है, जब इन्हीं के द्वारा सब कुछ हो सकता है, जब यज्ञचक्र के रूप में कर्मों का सिलसिला जारी नहीं रखने वाले की जिंदगी व्यर्थ है, वह पापमय जीवन ही गुजारता है एवं पामर विषयलोलुपों की तरह एकमात्र इंद्रियों का ही पोषक है, ऐसा स्वयं गीता का आदेश है, तब तो यह खयाल होना स्वाभाविक ही है कि किसी भी दशा में कर्मों से जिसका ताल्लुक टूटा वह पापी और बदमाश ही माना जाएगा। कम से कम गीता का तो यही सिद्धांत होगा - वह तो इसी पर मुहर लगाएगी। ऐसी दशा में शुकदेव, वामदेव, जड़भरत आदि की तरह जिनके कर्म खुद-ब-खुद पके फल की तरह छूट गए हैं, गिर गए हैं और जो मस्ती की लापरवाह - बेफिक्र - जिंदगी गुजारते हैं, उनका क्या होगा? वे भी वही 'अघायुरिन्द्रियारामा मोघं पार्थ स जीवति' वाले घोर अभिशाप के शिकार होंगे? होना तो चाहिए। मगर यह तो असंभव; अप्राकृतिक, अस्वाभाविक तथा केवल हास्यजनक बात मालूम पड़ती है। वह तो इतने ऊँचे हैं कि उन तक यह अभिशाप कभी पहुँच ही नहीं सकता। यह अजीब पहेली है! यह निराली समस्या है! जो अपनी आत्मा में ही - आत्मानंद में ही - रम गए हैं, उसी में तृप्त हैं और उसी में संतुष्ट हैं; जिनकी अपनी तृप्ति से ऐसा हो गया है कि फिर कभी दूसरी ओर जाई नहीं सकते - जो सदा के लिए संतुष्ट हो चुके हैं, उनके संबंध में सचमुच यह पेचीदा पहेली ही है जिसका सुलझाना असंभव लगता है। मगर गीता इसको - बीच में ही एकाएक पेश इस समस्या को - आगे के दो श्लोकों में आसानी से सुलझा के पुनरपि इस कर्म के यज्ञचक्र की बात को ही पकड़ती और आगे बढ़ती है।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।

आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥17॥

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥18।

(लेकिन) जो मनुष्य तो आत्मा में ही रम गया है, आत्मा ही में तृप्त है। और आत्मा में ही संतुष्ट है उसका कुछ भी कर्तव्य रही नहीं जाता है। न तो उसके करने से कुछ बनता ही है और न नहीं करने से बिगड़ता ही। सभी भौतिक पदार्थों में कोई भी ऐसा हई नहीं जिसका आश्रय वह किसी भी काम के लिए ले। 17। 18।

यहाँ अर्थ शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ में आया है जैसा कि बातचीत में ऐसे मौके पर आया करता है। आमतौर से काम, चीज या बात शब्द जिस मानी में बोले जाते हैं, ठीक उसी मानी में यह अर्थ शब्द आया है। यहाँ के सभी अर्थ शब्दों का यही मतलब है। इसीलिए सीधा अर्थ यही हो जाता है कि उसके करने-न करने से न तो कुछ बनता-बिगड़ता है और न दुनिया की कोई भी ऐसी चीज रही जाती है जिसकी प्राप्ति की कोशिश करने की उसे जरूरत हो। फिर उसके लिए कर्म करना जरूरी होगा क्यों? आखिर कर्मों की जरूरत होती है अपने या दूसरों के किसी मतलब के ही लिए न? मगर जिसके कर्मों से किसी का कोई भी मतलब सिद्ध होने वाला हो ही न, वह क्योंकर उन्हें करें? हाँ, यदि न करने से कुछ भी बिगड़ने वाला हो, किसी का भी बिगड़ने वाला हो, तो भी एक बात है। मगर यहाँ तो वह बात भी नहीं है। सबसे बड़ी बात, सब बातों की एक बात यह है कि राई से लेकर पर्वत तक या चींटी से लेकर भगवान तक से कोई न कोई काम निकालने के ही लिए क्रिया या कर्म की जरूरत पड़ती है। मगर मस्तराम के लिए तो यह भी बात नहीं है। उनके कर्मों के फलस्वरूप किसी से भी कोई काम सधने-बनने का हई नहीं!

श्लोक में 'कश्चिदर्थ-व्यपाश्रय:' आया है। उसका खास महत्त्व और मतलब है किसी भी काम के लिए हमें तो किसी न किसी छोटे-बड़े पदार्थ का आश्रय - सहारा - लेना ही होता है। मगर मस्तराम के लिए ऐसा कोई पदार्थ रही नहीं जाता। उसके लिए तो सभी अपनी आत्मा ही हैं - आत्मा से जुदा कोई हई नहीं। कही चुके हैं कि वह 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' हो जाता है। तब किसका सहारा ले? किसकी ओर नजर दौड़ाए? किधर बढ़े, चले? कोई दूसरा हो तब न? यहाँ तो सब कुछ वही है - 'आत्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति' (वृहदा. 4। 4। 23), 'यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत्केन कं जिघ्रेत्...केनकं विजानीयात्' (वृह. 4। 5। 15)। वह तो अपने आपको ही सर्वत्र देखता है, सुनता है, पढ़ता है, समझता है। क्योंकि उसकी नजरों में दूसरा कोई हई नहीं, द्वैत मिट गया, 'दुई' जाती रही, 'दुई रा चूं बगर करदम यकी दीदम दो आलम रा। यकी जूयम यकी बीनम यकी खानम यकी दानम।' फिर तो बिना कुछ किए ही सब कुछ हाजिर है! शाहंशाह जो ठहरा! प्रकृति को हिम्मत कि उसकी दरबारदारी न करे? इसीलिए हर चीजें उसी का आश्रय लेती हैं, अनायास अधीन हो जाती हैं। महाभारत के 'यदा च नाहमिच्छामि गन्धान्घ्राणगतानपि। तदा मे सर्वदा भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा' आदि कई श्लोकों में यही दिखाया है कि सभी चीजें उसके चाहे बिना ही हाजिर रहती हैं! जो लोग उसे खिलाते-पिलाते या शरीर-सेवा करते हैं उनका मनोरथ और उनकी सभी जरूरतें अकस्मात पूरी होती रहती हैं! तब और चाहिए ही क्या?

कुछ लोगों ने यह कोशिश की है कि 'तस्य कार्यं' आदि में षष्ठी विभक्ति का संबंध अर्थ लगा के यहाँ यह अभिप्राय बताएँ कि उसे अपने लिए कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है। इसीलिए जो कुछ करता है वह परोपकार और लोकसंग्रह के ही लिए। मगर वह भूल जाते हैं कि 'कृत्यानां कर्त्तरि वा' (2। 3। 71) और 'कर्त्तृकर्मणो कृति' (2। 3। 65) इन पाणिनीय सूत्रों के रहते उनका यह मतलब पूरा होने का नहीं। यह तो कर्त्ता के ही अर्थ में षष्ठी बताते हैं, न कि संबंध में। एक बात और भी तो देखें कि पहले तो साधारण कर्मियों की ही बात कही गई है, जैसा कि बता चुके हैं। इसके बाद भी वही बात है। तो फिर बीच में यह कर्मयोगी की बात कैसे आ गई? और उसका प्रसंग भी कौन-सा आ गया? लोकसंग्रह की बात तो 'कर्मणैव हि' (3। 20) श्लोक में फौरन ही आगे कही गई है। फिर एक श्लोक पहले भी उसे कहने का क्या मौका? यही नहीं 20 से 26 तक के श्लोकों में इस लोकसंग्रह और परोपकार की बात बहुत विस्तार से लिखी गई है। फिर यहाँ कैसे बेमौके आ गई? सो भी अधूरी? किसी-किसी को बारह महीने हरियाली ही सूझने की बात ठीक नहीं। सर्वत्र एक ही चीज को देखने और बताने की कोशिश उचित नहीं है।

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पुरुष:॥19॥

इसलिए आसक्ति छोड़ के - पूर्व बताए ढंग की हायहाय छोड़ के - अपना कर्तव्य कर्म ठीक-ठीक करते रहो। क्योंकि आसक्ति छोड़ के कर्मों को करने से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। 19।

लेकिन यदि परमात्मा को प्राप्त करना न हो तो? जो लोग आत्मज्ञानी और जीवन्मुक्त हैं। उन्हें न तो कोई सांसारिक-पदार्थ ही प्राप्त करने योग्य रहते हैं और न परमात्मा ही। वह तो खुद ही परमात्मा - निर्वाणब्रह्म - हो जाते हैं। फिर वह क्यों कर्म करेंगे? वह तो नहीं ही करेंगे न? नहीं-नहीं, वह भी करेंगे, यदि पूरे मस्तराम परमहंस न हो गए हों। यदि पूछें कि क्यों? तो सुनिए -

कर्मणैव हि संसद्धिमास्थिता जनकादया:।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्क र्त्तु मर्हसि॥20॥

आखिर संसिद्धि - ब्रह्मनिर्वाण - को प्राप्त हुए जनक आदि भी (तो) कर्म करते ही रहे - उनने कर्म को ही अपना साथी बराबर बनाए रखा। इसलिए लोकसंग्रह - संसार का पथप्रदर्शन - करने का ही खयाल करके भी (तो) तुम्हें कर्म करना ही होगा - करना ही चाहिए। 20।

यहाँ जो लोग यह मानते हैं कि जनकादि को कर्म से ही मोक्ष मिला, वह एक तो यह भूल जाते हैं कि मोक्ष ज्ञान से ही मिलता है। यह बात हम बहुत ही खूबी के साथ बता चुके हैं। उनने दूसरी जगह यही माना है। यदि मान भी लें कि कर्म से भी मुक्ति होती है, तो भी यह तो वे भी नहीं मानते कि निरे कर्म से मुक्ति होती है। वे तो ज्यादे से ज्यादा यही मानते हैं कि ज्ञान और कर्म दोनों के समुच्चय से - दोनों की सम्मिलित शक्ति से - ही मोक्ष मिलता है। मगर यहाँ तो 'कर्मणा एव' लिखा है, जिसका अर्थ है सिर्फ कर्म से। यह कैसे होगा? इसीलिए यहाँ कर्मणा इस तृतीया को 'कर्त्तृकरणयोस्तृतीया' (प. 2। 3। 18) के अनुसार साधन वाचक न मान के 'विनाऽपि तद्योगं तृतीया' के अनुसार 'सह' शब्द के न रहने पर भी उसका अर्थ प्रतीत होने पर ही तृतीया हो जाती है, यही मानना उचित है। हम इसीलिए, कर्म के साथ ही रहे, बराबर कर्म करते ही रहे, उसे कभी न छोड़ा यही अर्थ किया भी है।

सबसे मार्के की बात यहाँ, यह है कि इससे पहले के श्लोक में 'तस्मात्' कह के एक बात का उपसंहार कर लिया है, ऐसा स्पष्ट है। इसलिए इस श्लोक में कोई दूसरी नई बात शुरू हो के आगे चल रही है, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए इस श्लोक के पूर्वार्द्ध की मिलान उत्तरार्द्ध के साथ करने से और उसी के अनुसार आगे बढ़ने से सब बात ठीक हो जाएगी। नहीं तो यह पूर्वार्द्ध यों ही बीच में ही लटका रह जाएगा। क्योंकि उत्तरार्द्ध का तो साफ ही आगे से संबंध मानना होगा। जिस लोकसंग्रह का इसमें उल्लेख सूत्र रूप से है उसी का भाष्य आगे के पूरे छह श्लोक करते हैं। जनक को लोकसंग्रह करने वाला और पथदर्शक कर्मयोगी मानते भी हैं। इसलिए उत्तरार्द्ध के साथ मिला के हमने जो अर्थ किया है वही यहाँ पर उचित और ठीक है।

यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तद नुवर्त्त ते॥21॥

बड़े लोग जो-जो करते हैं वही-वही काम जनसाधारण भी करते हैं। बड़े जितना करते और जिसे सही मानते लोग भी उतना ही करते और उसी को सही मानते हैं। 21।

यहाँ 'प्रमाणं' का अर्थ प्रमाण या सही भी है और नापजोख भी। 'यत्प्रमाणं' शब्द जब समस्त माना जाए तब तो इसका अर्थ है 'जितना'। और अगर यत् तथा प्रमाणं अलग-अलग दो शब्द स्वतंत्र माने जाएँ तब 'जिसे सही' यह मानी हैं।

न मे पार्थास्ति क र्त्त व्यं त्रिषु लोकेषु किं चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं व र्त्त एव च कर्मणि॥22॥

हे पार्थ, तीनों लोक - सारे संसार में - मेरा कुछ भी कर्तव्य रह नहीं गया है। ऐसा भी नहीं कि कोई वस्तु मुझे हासिल न हो (और) उसे प्राप्त करना हो। फिर भी (देखो न) कर्म में लगा ही रहता हूँ। 22।

यदि ह्यहं न व र्त्ते यं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।

मम वर्त्मा नु वर्त्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥23॥

क्योंकि हे पार्थ, अगर मैं (खुद) कभी भी आलस्यरहित हो के कर्म करने से हिचकूँ तो सभी लोग मेरा ही रास्ता (चट) अख्तियार कर लेंगे। 23।

इस संबंध में यह याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण की रासलीला का इस कथन से स्पष्ट विरोध होने के कारण वह प्रक्षिप्त तथा पीछे जोड़ी गई चीज है। शिशुपाल से बढ़कर कृष्ण का शत्रु कोई न था जो खुले आम गाली-गलौज करता और उनके सच्चे-झूठे ऐबों के बारे में लेक्चर देता फिरता था। युधिष्ठिर के यज्ञ में जब कृष्ण की पूजा की गई तो उसे बरदाश्त न हो सकी। फलत: उसने बहुत कुछ अंटसंट बक डाला। उन्हें नीचा दिखाने के लिए यहाँ तक किया कि उनके मुरारि, मधुसूदन आदि नामों के अर्थ तक उसने बदल दिए, उन्हें खानदानी भगेड़ा बताया, वगैरह-वगैरह। मगर यह हिम्मत तो उसे भी न हुई कि कह डाले कि कृष्ण व्यभिचारी था, उसने गोपियों के साथ शरारत की, बदमाशी की। यदि उसे जरा भी गंध इस बात की मालूम होती तो ऐसा करने से वह हर्गिज न चूकता। फिर तो तिल का ताल बना छोड़ता। इससे स्पष्ट है कि कृष्ण का चरित इतना ऊँचा था कि उनके कट्टर से भी कट्टर दुश्मन तक को यह हिम्मत न थी कि इस बारे में जबान भी खोले। यदि गोपियों की रासलीला की गंध भी उस समय होती तो शिशुपाल क्या-क्या न कर डालता, कह डालता? इसलिए मानना होगा कि उस समय इसका नाम भी न था, चर्चा भी न थी। यह बात पीछे जुटी है, जोड़ी गई है।


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